Tuesday, November 17, 2009

आईने की तरह

दिल जो टूटे कभी आईने की तरह।
फिर वो जुड़ता नहीं आईने की तरह।।


हमने सोचा तुझे हर तरह से मगर,
तुझको देखा नहीं आईने की तरह।

कितने रिश्ते जुड़े फिर भी तन्हा रही,
जीस्त भी है कहीं आईने की तरह।

गुज़रे शामो-सहर देखकर ही तुझे,
अपनी क़िस्मत नहीं आईने की तरह।


तुझको छूकर नहीं छू सका हूँ कभी,
मैं हूँ बेबस कहीं आईने की तरह।


जिसको देखें करें उसकी तारीफ़ ही,
अपनी आदत नहीं आईने की तरह।

जो भी आया यहाँ 'प्रेम' कै़दी हुआ,
दिल से निकला नहीं आईने की तरह।

(रचनाकालः- 1999)

Wednesday, October 7, 2009

दूरियाँ दिल की बढ़ा गया

वह फ़ैसला अपना सुना गया।
कुछ दूरियाँ दिल की बढ़ा गया।।


जैसे अदू को देखता अदू ,
यूँ देखता मुझको चला गया।

मेरे नयन में अश्क छोड़कर,
वह शाद-सा होता चला गया।

जबसे उसे दौलत भली लगी,
वह मुझको भुलाता चला गया।

वह वक़्त में बहता चला गया,
मैं वक़्त से लड़ता चला गया।।

उसकी सदा में एक दर्द था,
पागल जो बोलता चला गया।

उसने ज़माने की फ़क़त सुनी,
लेकिन किसी का घर चला गया।

सूरत किसी की 'प्रेम' देखकर,
इक नाम जैसे याद आ गया।

(रचनाकाल- 1998)

Sunday, October 4, 2009

ख़ुदा की मर्ज़ी है, ख़ुदा से क्या शिकवा (दो)

एक-

बनके बिगड़ा है मुकद्दर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
यारो जलता है मिरा घर ख़ुदा की मर्ज़ी है।।


उसकी नज़रों से गिरे हम तो क़ज़ा आन मिली,
फिर भी इल्ज़ाम रहा सर ख़ुदा की मर्ज़ी है।

तुझको चाहे जो मिटाना सनम तो मेरे दिल,
यह भी हो जाने दे अगर ख़ुदा की मर्ज़ी है।

यारो इस बहशी जहाँ में यूँ लगे है मुझको,
लाश ज़िन्दा-सी हूँ मर कर ख़ुदा की मर्ज़ी है।

जिसको ख़ुद से भी अधिक प्यार करता हूँ वह ही,
लिए फिरता है वह ख़ंजर ख़ुदा की मर्ज़ी है।

उसपे मिटने से बचें 'प्रेम' तो दिल फटता है,
अपनी मर्ज़ी नहीं दिल पर ख़ुदा की मर्ज़ी है।

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दो-

बदलूँ करवट मैं रात भर ख़ुदा से क्या शिकवा।
उसकी उल्फ़त का है असर ख़ुदा से क्या शिकवा।।



मुझको अपनी ही तबाही पे रक़्स करने दो,
मेरे हरसू हैं सितमगर ख़ुदा से क्या शिकवा।

इतनी नफ़रत वह करे है कि मेरे ज़िक्र से ही,
फेंकने लगता है पत्थर ख़ुदा से क्या शिकवा।

मेरी क़िस्मत की लकीरें जब मुझे रौंद गईं,
सबने ही दी मुझे ठोंकर ख़ुदा से क्या शिकवा।

उसकी बातों में अजब-सा ही एक जादू है,
उसकी बातें हैं ज़ुबाँ पर ख़ुदा से क्या शिकवा।

उसकी यादों को भुलाता हूँ 'प्रेम' फिर भी तो,
दिल पे रहता है इक असर ख़ुदा से क्या शिकवा।

(रचनाकाल- जुलाई-2002)

Saturday, October 3, 2009

प्यार के बोल लगते भले

धूप सर पर रही छाँव पैरों तले।
फूल जितने चुने ख़ार उतने मिले।।


मन हज़ारों दुःखों से घिरा है मगर,
हँस रहा हूँ ज़माना जले तो जले।

आशियाने करें लोग रोशन मगर,
राह में और दिल में अँधेरा पले।

आदमी नफ़रतें ही बढ़ाता रहा,
टूटते ही रहे प्यार के सिलसिले।

गीत अपना सभी गुनगुनाते रहे,
कौन समझा यहाँ वक़्त के फैसले।

आज माँ की दुआएँ असर कर गईं,
ख़ुश रहे तू सदा ख़ूब फूले-फले।

प्यार के बोल अल्लाह के बोल हैं,
इसलिए प्यार के बोल लगते भले।

ऐ ख़ुदा है हुकूमत तिरी हर जगह,
दूर कर ज़िन्दगी से सभी ज़लज़ले।

ज़िन्दगी भूलती जा रही है हमें,
मौत हमसे कहे आ लगा ले गले।

'प्रेम' उस ख़्वाब ने नींद ही छीन ली,
लाख अरमान जिस ख़्वाब में थे पले।
(रचनाकाल- नवम्बर-2003)

तेरा क्या है मेरा क्या है

सबका ज़हाँ है सबका ख़ुदा है।
तेरा क्या है मेरा क्या है।।

सारा ज़माना जैसे कि मेला,
आना-मिलना-जाना लगा है।

तेरे हाथ में खाली लकीरें,
पाना क्या है खोना क्या है।

दौलत, शोहरत, हसरतो-इज़्ज़त,
इक चाहत है इक सपना है।

दिल में सभी के तेज है जिसका,
राम-रहीम वो ईसा-ख़ुदा है।

हमने पढ़ा था इक खण्डहर में,
इंसाँ क्या है दुनिया क्या है।

जिसपे करे है इतना गुमाँ तू ,
गगन-आग-जल-मिट्टी-हवा है।

'प्रेम' कण्ठ-उर सबको लगा ले,
सबसे तिरा इक रिश्ता जुड़ा है।।

(रचनाकाल- फरवरी-2003)

मेरी आवाज़ हो

दिल की धड़कन हो तुम मेरी आवाज़ हो।
या कि ख़ुद का छुपाया हुआ राज़ हो।।


चाँदनी में नहाता हुआ-सा बदन,
तुमको पाकर हमें क्यूँ नहीं नाज़ हो।

भोली सूरत से अठखेलियाँ ज़ुल्फ़ की,
शायरी हो कि शायर का अंदाज़ हो।

होंठ प्याले लगे हैं भरे जाम के,
इनको पीने भी दो क्यूँकर नाराज़ हो।

नफ़रतें हम भुला दें सदा के लिए,
ऐसे जीवन का फिर क्यूँ न आग़ाज़ हो।

मैं कन्हईया बना शाःजहाँ भी बना,
तुम हो राधा मिरी और मुमताज़ हो।

तुमको इतना समझता है दिल 'प्रेम' का,
इन्तिहा भी तुम्हीं तुम ही आग़ाज़ हो।।

(रचनाकाल- नवम्बर-2000)

उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ

सनम जब तिरा मैं मकाँ देखता हूँ।
अजब दुःख भरी दास्ताँ देखता हूँ।।


मुझे जब कभी याद आती है तेरी,
वफ़ाओं भरा आशियाँ देखता हूँ।

ख़ुदा ने हसीं तुझको इतना बनाया,
कि ख़ुद को भी मैं बदगुमाँ देखता हूँ।

बयाँ क्या करूँ अपने दिल की ख़लिश का,
तिरे ग़म का दिल पर निशाँ देखता हूँ।

मुझे शहर के ज़लज़ले का नहीं ग़म,
यह ग़म है कि हरसू ख़िज़ाँ देखता हूँ।

दवा ज़ख्म-ए-दिल की तो करता यक़ीनन,
क़यामत का लेकिन समाँ देखता हूँ।

बड़े शौक से 'प्रेम' जिसको सजाया,
उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ।।

शब्द-अर्थ=-मकाँ-घर, दास्ताँ-कहानी,
आशियाँ-घर, बदगुमाँ-खोया हुआ(खोया-खोया),
बयाँ-बखान/जिक्र, ख़लिश-चुभन,
निशाँ-चिह्न, ज़लज़ला-तूफ़ान,
ख़िज़ाँ-पतझड़, क़यामत-प्रलय, समाँ-दृश्य
(रचनाकाल- अगस्त-1998)