Saturday, October 3, 2009

उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ

सनम जब तिरा मैं मकाँ देखता हूँ।
अजब दुःख भरी दास्ताँ देखता हूँ।।


मुझे जब कभी याद आती है तेरी,
वफ़ाओं भरा आशियाँ देखता हूँ।

ख़ुदा ने हसीं तुझको इतना बनाया,
कि ख़ुद को भी मैं बदगुमाँ देखता हूँ।

बयाँ क्या करूँ अपने दिल की ख़लिश का,
तिरे ग़म का दिल पर निशाँ देखता हूँ।

मुझे शहर के ज़लज़ले का नहीं ग़म,
यह ग़म है कि हरसू ख़िज़ाँ देखता हूँ।

दवा ज़ख्म-ए-दिल की तो करता यक़ीनन,
क़यामत का लेकिन समाँ देखता हूँ।

बड़े शौक से 'प्रेम' जिसको सजाया,
उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ।।

शब्द-अर्थ=-मकाँ-घर, दास्ताँ-कहानी,
आशियाँ-घर, बदगुमाँ-खोया हुआ(खोया-खोया),
बयाँ-बखान/जिक्र, ख़लिश-चुभन,
निशाँ-चिह्न, ज़लज़ला-तूफ़ान,
ख़िज़ाँ-पतझड़, क़यामत-प्रलय, समाँ-दृश्य
(रचनाकाल- अगस्त-1998)

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