वह फ़ैसला अपना सुना गया।
कुछ दूरियाँ दिल की बढ़ा गया।।
जैसे अदू को देखता अदू ,
यूँ देखता मुझको चला गया।
मेरे नयन में अश्क छोड़कर,
वह शाद-सा होता चला गया।
जबसे उसे दौलत भली लगी,
वह मुझको भुलाता चला गया।
वह वक़्त में बहता चला गया,
मैं वक़्त से लड़ता चला गया।।
उसकी सदा में एक दर्द था,
पागल जो बोलता चला गया।
उसने ज़माने की फ़क़त सुनी,
लेकिन किसी का घर चला गया।
सूरत किसी की 'प्रेम' देखकर,
इक नाम जैसे याद आ गया।
(रचनाकाल- 1998)
Wednesday, October 7, 2009
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aapki rachnayen uttam hain magar urdu ke lihaz se kuchh galtiyan hain unhen sudharen aap ek achhe shayar hain ye aapki rachnaon se pata chalta hai
ReplyDeleteaadil rasheed
बहुत-बहुत शुक्रिया आदिल साहेब हो सकता है टाइपिंग के लिहाज़ से ग़लतियाँ हो गईं हों, यूँ तो मैंने उर्दू की तालीम नहीं ली है आपकी बात पर भी ग़ौर फरमाऊँगा, आपकी बेसाख़्ता बयान और तारीफ़ के लिए भी शुक्रिया। यह ग़ज़लें काफी पुरानी हैं, आगे की रचनाओं पर भी अपनी बात रक्खें मेहरबानी होगी।
ReplyDeleteएक बार फिर बहुत-बहुत शुक्रिया
आपका
पण्डित प्रेम बरेलवी