Thursday, October 1, 2009

'प्रेम' उसी के बन्दे सारे

मकाँ-मकाँ चिल्लाने वालो,
ऊँची शान दिखाने वालो-


मिरे मकाँ के ठाठ तो देखो-
महल-नुमाँ यह सबसे उमदा।
....और कहाँ है इससे उमदा।।

मिरे मकाँ में ताल, नदी-ओ-सागर, झीलें,
खुले आसमाँ वाली छत है.........
झाँक रहे हैं देव जहाँ से.....
जड़े हैं जिसमें चाँद-सितारे,
सूरज के जैसे अँगारे,
पानी के बादल हैं जिसमें........
सन-सन बहती खुली हवा है।
खुले दरीचे, हरे बगीचे,
फूल खिले जाँ डगर-डगर में,

.......न जिसमें दीवार-ओ दर हैं।
पर्वत, जंगल, सहरा, खाड़ी...
जैसे कुदरत के करतव हैं।
जिसमें रहते साँप, नेवले, चींटी, हाथी,
पंछी जैसे अरबों प्राणी।


मेरे इसी मकाँ में सारे॥
दीवारों में बँधे हुए से,
छोटे-छोटे, बँटे-बँटे से,
घटे-घटे से, कटे-कटे से घर हैं कितने..........

जिनमें बँटकर रहते हो तुम.............
बंदी जैसे तन्हा-तन्हा,
निचुड़े-निचुड़े, रुसवा-रुसवा,
सहमे-सहमे, डरे-डरे से,
ग़म के मारे, दुःख से हारे,
किसी विचारे जैसे सारे।
उखड़े-उखड़े, टूटे-टूटे,
लुटे-लुटे से, ठगे-ठगे से,
.................जग से हारे।।


मैं रहता हूँ खुली हवा में, खुले ज़हाँ में...

जहाँ कोई सरहद न सीमा,
जहाँ कोई डर है न दुविधा,
जहाँ मिले है हर सुख-सुविधा।
जहाँ किसी को ग़म नहिं कोई,
जहाँ रहे सुख से हर कोई।।

मिरे मकाँ के कण-कण में वो--
जो दुनिया का भाग्य विधाता।।
पालन हारा, सबसे प्यारा......
सबका मालिक, सबका स्वामी
-नाम है जिसका अंतर्यामी।

तुम भी आना चाहो तो फिर.............
आओ सारे.... मेरे प्यारे
लेकिन, तज अभिमान व मिथ्या,
वैर-द्वैश सबकी कर हत्या;

ये दीवारें, ये सीमाएँ तोड़ के आओ......
आओ-आओ दौड़ के आओ..............
दुःख से न किंचित घबराओ,
हर मौसम में मौज़ उड़ाओ..............
हर प्राणी को गले लगाओ,
प्यार बढ़ाओ... दोस्त बनाओ।
आओ-आओ--आओ---आओ..........
सारे जग के तुम हो जाओ;


तुम्हें पुकारें सभी तुम्हारे-
'प्रेम' उसी के बन्दे सारे।

कियूँ बँटते हो, कियूँ घटते हो,
इक दिन लौट चलेंगे हम सब...
---घर दुनिया के छोड़ झमेले.................

फिर कैसा अभिमान रे बन्धु।
सबका एक जहान रे बन्धु।
सबका एक मकान रे बन्धु।
सबका इक भगवान रे बन्धु।।
(रचनाकाल- अगस्त-2009)