धूप सर पर रही छाँव पैरों तले।
फूल जितने चुने ख़ार उतने मिले।।
मन हज़ारों दुःखों से घिरा है मगर,
हँस रहा हूँ ज़माना जले तो जले।
आशियाने करें लोग रोशन मगर,
राह में और दिल में अँधेरा पले।
आदमी नफ़रतें ही बढ़ाता रहा,
टूटते ही रहे प्यार के सिलसिले।
गीत अपना सभी गुनगुनाते रहे,
कौन समझा यहाँ वक़्त के फैसले।
आज माँ की दुआएँ असर कर गईं,
ख़ुश रहे तू सदा ख़ूब फूले-फले।
प्यार के बोल अल्लाह के बोल हैं,
इसलिए प्यार के बोल लगते भले।
ऐ ख़ुदा है हुकूमत तिरी हर जगह,
दूर कर ज़िन्दगी से सभी ज़लज़ले।
ज़िन्दगी भूलती जा रही है हमें,
मौत हमसे कहे आ लगा ले गले।
'प्रेम' उस ख़्वाब ने नींद ही छीन ली,
लाख अरमान जिस ख़्वाब में थे पले।
(रचनाकाल- नवम्बर-2003)
Saturday, October 3, 2009
तेरा क्या है मेरा क्या है
सबका ज़हाँ है सबका ख़ुदा है।
तेरा क्या है मेरा क्या है।।
सारा ज़माना जैसे कि मेला,
आना-मिलना-जाना लगा है।
तेरे हाथ में खाली लकीरें,
पाना क्या है खोना क्या है।
दौलत, शोहरत, हसरतो-इज़्ज़त,
इक चाहत है इक सपना है।
दिल में सभी के तेज है जिसका,
राम-रहीम वो ईसा-ख़ुदा है।
हमने पढ़ा था इक खण्डहर में,
इंसाँ क्या है दुनिया क्या है।
जिसपे करे है इतना गुमाँ तू ,
गगन-आग-जल-मिट्टी-हवा है।
'प्रेम' कण्ठ-उर सबको लगा ले,
सबसे तिरा इक रिश्ता जुड़ा है।।
(रचनाकाल- फरवरी-2003)
तेरा क्या है मेरा क्या है।।
सारा ज़माना जैसे कि मेला,
आना-मिलना-जाना लगा है।
तेरे हाथ में खाली लकीरें,
पाना क्या है खोना क्या है।
दौलत, शोहरत, हसरतो-इज़्ज़त,
इक चाहत है इक सपना है।
दिल में सभी के तेज है जिसका,
राम-रहीम वो ईसा-ख़ुदा है।
हमने पढ़ा था इक खण्डहर में,
इंसाँ क्या है दुनिया क्या है।
जिसपे करे है इतना गुमाँ तू ,
गगन-आग-जल-मिट्टी-हवा है।
'प्रेम' कण्ठ-उर सबको लगा ले,
सबसे तिरा इक रिश्ता जुड़ा है।।
(रचनाकाल- फरवरी-2003)
मेरी आवाज़ हो
दिल की धड़कन हो तुम मेरी आवाज़ हो।
या कि ख़ुद का छुपाया हुआ राज़ हो।।
चाँदनी में नहाता हुआ-सा बदन,
तुमको पाकर हमें क्यूँ नहीं नाज़ हो।
भोली सूरत से अठखेलियाँ ज़ुल्फ़ की,
शायरी हो कि शायर का अंदाज़ हो।
होंठ प्याले लगे हैं भरे जाम के,
इनको पीने भी दो क्यूँकर नाराज़ हो।
नफ़रतें हम भुला दें सदा के लिए,
ऐसे जीवन का फिर क्यूँ न आग़ाज़ हो।
मैं कन्हईया बना शाःजहाँ भी बना,
तुम हो राधा मिरी और मुमताज़ हो।
तुमको इतना समझता है दिल 'प्रेम' का,
इन्तिहा भी तुम्हीं तुम ही आग़ाज़ हो।।
(रचनाकाल- नवम्बर-2000)
या कि ख़ुद का छुपाया हुआ राज़ हो।।
चाँदनी में नहाता हुआ-सा बदन,
तुमको पाकर हमें क्यूँ नहीं नाज़ हो।
भोली सूरत से अठखेलियाँ ज़ुल्फ़ की,
शायरी हो कि शायर का अंदाज़ हो।
होंठ प्याले लगे हैं भरे जाम के,
इनको पीने भी दो क्यूँकर नाराज़ हो।
नफ़रतें हम भुला दें सदा के लिए,
ऐसे जीवन का फिर क्यूँ न आग़ाज़ हो।
मैं कन्हईया बना शाःजहाँ भी बना,
तुम हो राधा मिरी और मुमताज़ हो।
तुमको इतना समझता है दिल 'प्रेम' का,
इन्तिहा भी तुम्हीं तुम ही आग़ाज़ हो।।
(रचनाकाल- नवम्बर-2000)
उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ
सनम जब तिरा मैं मकाँ देखता हूँ।
अजब दुःख भरी दास्ताँ देखता हूँ।।
मुझे जब कभी याद आती है तेरी,
वफ़ाओं भरा आशियाँ देखता हूँ।
ख़ुदा ने हसीं तुझको इतना बनाया,
कि ख़ुद को भी मैं बदगुमाँ देखता हूँ।
बयाँ क्या करूँ अपने दिल की ख़लिश का,
तिरे ग़म का दिल पर निशाँ देखता हूँ।
मुझे शहर के ज़लज़ले का नहीं ग़म,
यह ग़म है कि हरसू ख़िज़ाँ देखता हूँ।
दवा ज़ख्म-ए-दिल की तो करता यक़ीनन,
क़यामत का लेकिन समाँ देखता हूँ।
बड़े शौक से 'प्रेम' जिसको सजाया,
उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ।।
शब्द-अर्थ=-मकाँ-घर, दास्ताँ-कहानी,
आशियाँ-घर, बदगुमाँ-खोया हुआ(खोया-खोया),
बयाँ-बखान/जिक्र, ख़लिश-चुभन,
निशाँ-चिह्न, ज़लज़ला-तूफ़ान,
ख़िज़ाँ-पतझड़, क़यामत-प्रलय, समाँ-दृश्य
(रचनाकाल- अगस्त-1998)
अजब दुःख भरी दास्ताँ देखता हूँ।।
मुझे जब कभी याद आती है तेरी,
वफ़ाओं भरा आशियाँ देखता हूँ।
ख़ुदा ने हसीं तुझको इतना बनाया,
कि ख़ुद को भी मैं बदगुमाँ देखता हूँ।
बयाँ क्या करूँ अपने दिल की ख़लिश का,
तिरे ग़म का दिल पर निशाँ देखता हूँ।
मुझे शहर के ज़लज़ले का नहीं ग़म,
यह ग़म है कि हरसू ख़िज़ाँ देखता हूँ।
दवा ज़ख्म-ए-दिल की तो करता यक़ीनन,
क़यामत का लेकिन समाँ देखता हूँ।
बड़े शौक से 'प्रेम' जिसको सजाया,
उसी घर में उठता धुआँ देखता हूँ।।
शब्द-अर्थ=-मकाँ-घर, दास्ताँ-कहानी,
आशियाँ-घर, बदगुमाँ-खोया हुआ(खोया-खोया),
बयाँ-बखान/जिक्र, ख़लिश-चुभन,
निशाँ-चिह्न, ज़लज़ला-तूफ़ान,
ख़िज़ाँ-पतझड़, क़यामत-प्रलय, समाँ-दृश्य
(रचनाकाल- अगस्त-1998)
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