एक-
बनके बिगड़ा है मुकद्दर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
यारो जलता है मिरा घर ख़ुदा की मर्ज़ी है।।
उसकी नज़रों से गिरे हम तो क़ज़ा आन मिली,
फिर भी इल्ज़ाम रहा सर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
तुझको चाहे जो मिटाना सनम तो मेरे दिल,
यह भी हो जाने दे अगर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
यारो इस बहशी जहाँ में यूँ लगे है मुझको,
लाश ज़िन्दा-सी हूँ मर कर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
जिसको ख़ुद से भी अधिक प्यार करता हूँ वह ही,
लिए फिरता है वह ख़ंजर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
उसपे मिटने से बचें 'प्रेम' तो दिल फटता है,
अपनी मर्ज़ी नहीं दिल पर ख़ुदा की मर्ज़ी है।
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दो-
बदलूँ करवट मैं रात भर ख़ुदा से क्या शिकवा।
उसकी उल्फ़त का है असर ख़ुदा से क्या शिकवा।।
मुझको अपनी ही तबाही पे रक़्स करने दो,
मेरे हरसू हैं सितमगर ख़ुदा से क्या शिकवा।
इतनी नफ़रत वह करे है कि मेरे ज़िक्र से ही,
फेंकने लगता है पत्थर ख़ुदा से क्या शिकवा।
मेरी क़िस्मत की लकीरें जब मुझे रौंद गईं,
सबने ही दी मुझे ठोंकर ख़ुदा से क्या शिकवा।
उसकी बातों में अजब-सा ही एक जादू है,
उसकी बातें हैं ज़ुबाँ पर ख़ुदा से क्या शिकवा।
उसकी यादों को भुलाता हूँ 'प्रेम' फिर भी तो,
दिल पे रहता है इक असर ख़ुदा से क्या शिकवा।
(रचनाकाल- जुलाई-2002)
Sunday, October 4, 2009
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