Tuesday, September 29, 2009

किसको कहूँ दोस्त किसको अदू

लुट गई फिर से बाज़ार में आबरू।
रह गई टूटकर आख़िरी आरज़ू।।
आदमी आदमी को कुचलने लगा,
दिल इबादत करे या करे जुस्तजू।

सुर्ख़ दामन भी है, सुर्ख़ है शाम भी,
बह रहा उनकी आँखों से किसका लहू।

हाथ में ख़ूँ से तर एक ख़ंजर लिए,
आ गया मेरा क़ातिल मिरे रू-ब-रू।
ज़िन्दगी को कहूँ जीस्त या मौत को,
दोनों ही शोला-रू, दोनों ही शोला-ख़ू।

जो मिला आज तक ख़ुदग़रज़ ही मिला,
'प्रेम' किसको कहूँ दोस्त, किसको अदू।
शब्द अर्थ=- आबरू - इज्ज़त(प्रतिष्ठा), आरज़ू - इच्छा, जुस्तजू - इच्छा,
सु र्ख़ - गहरा लाल, ख़ूँ - ख़ून, जीस्त - ज़िन्दगी,
शोला-रू - अति सुन्दर, शोला-ख़ू - कुरूप(भयानक),
ख़ुदग़रज़ - मतलबी, अदू - दुश्मन
(रचनाकाल- अक्टूबर-2002)

Saturday, September 26, 2009

जी न सके

प्यास उभरी थी समन्दर-सी मगर,
एक प्याला नज़र का पी न सके।
कहाँ तो कम थी ज़िन्दगी भी यहाँ,
मगर इक साँस तक को जी न सके।।


न पूछ नाम उनके,
नज़र में तीर जिनके अटके हैं......
एक तो दर्द उस पर हाय दवा,
इतनी कड़ुवी कि कभी पी न सके।

बडा़ अजीब है दिल,
मिरे क़ातिल से इश्क़ कर बैठा......
हजा़रों टुकड़े मुहब्बत के हुए,
जिन्हें हम आज तक भी सी न सके।

नसीब हाय मेरा,
नज़र में रोज़ उनका आना है......
मगर यह 'प्रेम' कैसा रिश्ता है,
साथ मर भी ना सके जी भी न सके।
प्यास उभरी थी...................................।।

(रचनाकाल- फरवरी-2006)