लुट गई फिर से बाज़ार में आबरू।
रह गई टूटकर आख़िरी आरज़ू।।
आदमी आदमी को कुचलने लगा,
दिल इबादत करे या करे जुस्तजू।
सुर्ख़ दामन भी है, सुर्ख़ है शाम भी,
बह रहा उनकी आँखों से किसका लहू।
हाथ में ख़ूँ से तर एक ख़ंजर लिए,
आ गया मेरा क़ातिल मिरे रू-ब-रू।
ज़िन्दगी को कहूँ जीस्त या मौत को,
दोनों ही शोला-रू, दोनों ही शोला-ख़ू।
जो मिला आज तक ख़ुदग़रज़ ही मिला,
'प्रेम' किसको कहूँ दोस्त, किसको अदू।
शब्द अर्थ=- आबरू - इज्ज़त(प्रतिष्ठा), आरज़ू - इच्छा, जुस्तजू - इच्छा,
सु र्ख़ - गहरा लाल, ख़ूँ - ख़ून, जीस्त - ज़िन्दगी,
शोला-रू - अति सुन्दर, शोला-ख़ू - कुरूप(भयानक),
ख़ुदग़रज़ - मतलबी, अदू - दुश्मन
(रचनाकाल- अक्टूबर-2002)
हाथ में ख़ूँ से तर एक ख़ंजर लिए,
ReplyDeleteआ गया मेरा क़ातिल मिरे रू-ब-रू।
bahut hi sundar sher hai badhai!!
आदाब प्रेम फर्रुखाबादी साहेब अभी नई रचनाओं के लिए मेरे ब्लॉग को आगे भी पढ़ें मेहरबानी होगी।
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
आपका आभारी
पण्डित प्रेम बरेलवी