Saturday, September 26, 2009

जी न सके

प्यास उभरी थी समन्दर-सी मगर,
एक प्याला नज़र का पी न सके।
कहाँ तो कम थी ज़िन्दगी भी यहाँ,
मगर इक साँस तक को जी न सके।।


न पूछ नाम उनके,
नज़र में तीर जिनके अटके हैं......
एक तो दर्द उस पर हाय दवा,
इतनी कड़ुवी कि कभी पी न सके।

बडा़ अजीब है दिल,
मिरे क़ातिल से इश्क़ कर बैठा......
हजा़रों टुकड़े मुहब्बत के हुए,
जिन्हें हम आज तक भी सी न सके।

नसीब हाय मेरा,
नज़र में रोज़ उनका आना है......
मगर यह 'प्रेम' कैसा रिश्ता है,
साथ मर भी ना सके जी भी न सके।
प्यास उभरी थी...................................।।

(रचनाकाल- फरवरी-2006)

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