सबका ज़हाँ है सबका ख़ुदा है।
तेरा क्या है मेरा क्या है।।
सारा ज़माना जैसे कि मेला,
आना-मिलना-जाना लगा है।
तेरे हाथ में खाली लकीरें,
पाना क्या है खोना क्या है।
दौलत, शोहरत, हसरतो-इज़्ज़त,
इक चाहत है इक सपना है।
दिल में सभी के तेज है जिसका,
राम-रहीम वो ईसा-ख़ुदा है।
हमने पढ़ा था इक खण्डहर में,
इंसाँ क्या है दुनिया क्या है।
जिसपे करे है इतना गुमाँ तू ,
गगन-आग-जल-मिट्टी-हवा है।
'प्रेम' कण्ठ-उर सबको लगा ले,
सबसे तिरा इक रिश्ता जुड़ा है।।
(रचनाकाल- फरवरी-2003)
Saturday, October 3, 2009
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